”धर्मांतरण” राष्ट्रीय धर्मग्रन्थ ”गीता” की धर्म की परिभाषा भूल गए …
PAPI HARISHCHANDRA
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”अच्छी प्रकार आचरण मैं लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है | अपने धर्म मैं मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय देने वाला होता है | स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप का भागी नहीं होता है | ”३(३५)|……………………गीता को राष्ट्रीय धर्म ग्रन्थ बनाने वाले ,गीता को विश्व मैं महानुभावों को भेंट देने वाले यदि धर्मान्तरण पर उझल फिजूल व्यव्हार कर रहे हैं तो इससे यही सिद्ध होता है कि वे गीता ज्ञान से अनभिज्ञ हैं | वे केवल गीता के धर्म ग्रन्थ होने का राजनीतिक लाभ ही लेना चाहते हैं | माननीय न्यायाधीश का यह विचार की गीता को बच्चों के पाठ्य पुष्तक मैं होना चाहिए से कुछ नहीं हो सकता जब तक हमारे राजनीतिज्ञ ही उस ज्ञान से अनभिज्ञ हों | राजनीतिज्ञ तो अपना राज धर्म निभा रहे होंगे किन्तु सन्यासी भी राजस धर्म के अनुयायी बनते अपना स्वधर्म खो रहे हैं तो उनका सन्यास रूप एक ढोंग ही लगेगा | उन्हें साधारण राजसी वेश भूषा मैं राजस नामों मैं ही दीखना चाहिए | वे कौन सा धर्म निभा रहे हैं सन्यास या राजस ……..? आध्यात्मिक या भौतिक …..? … त्यागी या वैरागी रूप नहीं दिखा सकते हैं तो कौन सा स्वधर्म निभा रहे हैं | या तो गीता को सिर्फ ज्ञान या धर्म ग्रन्थ मानकर व्यव्हार करें या स्पष्ट कह दें कि गीता जन मानस को गुमराह कर स्वार्थ सिद्धी का साधन ही है | युग पुरातन नहीं है जहाँ अनपढ़ हुआ करते थे अब पड़े लिखे अच्छे बुरे का ज्ञान रखने वाले मनुष्य हैं जिनको केवल धर्म पर मुर्ख बना कर उल्लू सीधा नहीं किया जा सकता है | अच्छे बुरे का ज्ञान जल्द हो ही जायेगा | …………………………………………….गीता हिन्दुओं का धर्म ग्रन्थ है जिसके अनुसार स्वधर्म कल्याणकारक है दूसरे का धर्म भय देने वाला होता है | स्वधर्मी पाप का भागी नहीं होता है | स्वधर्मी परम सिद्धि दायक होती है | फिर क्यों गीता ज्ञान को नकारते हुए दूसरे को पाप का भागी बनाते स्वयं भी घनघोर पाप कर रहे हैं | जब गीता को नकार रहे हो तो कैसे गीता को राष्ट्रिय धर्म ग्रन्थ की तरह स्थापित कर सकोगे …..? ………………………………………………………भगवन श्री कृष्ण युग मैं हिन्दू ,मुश्लिम ,सिख ईसाई आदि अन्य धर्म नहीं थे | ब्राह्मण क्षत्रिय ,वैश्य ,शूद्र मैं विभक्त मनुष्य था | जिनका अपने अपने कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त स्वधर्म था | ……………………………………..ब्राह्मण का स्वधर्म .……”अंतःकरण का निग्रह करना ,इन्द्रियों का दमन करना ,धर्मपालन के लिए कष्ट सहना ,बाहर भीतर से शुद्ध रहना ,दूसरों के अपराधों को क्षमा करना ,मन ,इन्द्रिय ,और शरीर को सरल रखना ,वेद शास्त्र ,ईश्वर ,और परलोक आदि मैं श्रद्धा रखना ,,परमात्मा के तत्व का अनुभव करना …..आदि स्वाभाविक धर्म कर्म थे |”………………………………………………...क्षत्रीय के स्वाभाविक धर्म कर्म थे ..……”शुरवीरता ,तेज ,धैर्य ,चतुरता ,और युद्ध मैं न भागना ,दान देना ,और स्वामीभाव . आदि |” ………………………………………………………….वैश्य के स्वाभाविक धर्म कर्म ….……………”.खेती ,गौपालन ,और क्रय ,विक्रय ,रूप सत्य व्यव्हार आदि | ” ………………………..शूद्र का स्वाभाविक धर्म कर्म.… ”सब वर्णों की सेवा करना ही होता था |”………………………………………………..”.जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुयी है और जिससे यह सारा जगत व्याप्त है ,उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को पा लेता है | ”………………………………………….अतः दोष युक्त होने पर भी स्वधर्म कर्म को नहीं त्यागना चाहिए ,क्यों कि धुएं से अग्नि की भांति सभी धर्म कर्म किसी न किसी दोष से युक्त हैं |.१८(४८) …………………..…………….भगवन श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा कि …….सम्पूर्ण धर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान ,सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण मैं आ जा | मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा ,तू शोक मत कर |१८(६६)……………………………वर्ण शंकरात्मक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं | जिनका कुल धर्म नष्ट हो गया हो वे अनिश्चित काल तक नरक मैं रहते हैं | .१(४३)……………………….हे अर्जुन.. यदि तू इस धर्म युक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप का भागी होगा | .२(३३)………………………जब जब धर्म की हानि और अधर्म की बृद्धि होती है ,तब तब मैं साकार रूप से लोगों के सन्मुख प्रकट होता हूँ | ४(७)……………………………………………साधु पुरुषों के उद्धार करने के लिए ,पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह स्थापना करने के लिए मैं युग युग मैं प्रकट हुआ करता हूँ | ४(८) ………………………………………यदि कोई दुराचारी भी अंनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है ,उसने भलीभांति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान और कुछ भी नहीं है | वह शीघ्र धर्मात्मा हो जाता है और परम शांति पाता है | स्त्री ,वैश्य ,शूद्र , तथा पाप योनि चांडाल आदि जो कोई भी हों ,वे भी मेरे शरण होकर परमगति को पाते हैं | ९(३२)…………………………………………………..……………………………………...ओम शांति शांति शांति .shanti
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