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दो स्वयंभू भगवानों का विरोधाभाषी ज्ञान …..?

PAPI HARISHCHANDRA
PAPI HARISHCHANDRA
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”काम” पर दिया ज्ञान सन्मार्ग देता शांति प्रदान करता है …….”.रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है ,यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघाने वाला और बड़ा पापी है इसको ही तू पापाचरण का प्रेरक वैरी जान | अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम रूप वैरी के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढंका हुआ है | इन्द्रियां ,मन और बुद्धि ..ये सब इसके वास स्थान कहे जाते हैं यह काम इन मन बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है | .विषयों का चिंतन करने से उन विषयों मैं आशक्ति हो जाती है ,आशक्ति से उन विषयों मैं कामना उत्पन्न हो जाती है | कामना मैं विद्धन पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है | क्रोध से अत्यंत मूड भाव पैदा होता है ,मूढ़भाव से स्मृति मैं भ्रम ,भ्रम से बुद्धि अर्थात ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से अपनी स्तिथि से गिर जाता है | ………………………………………...इसलिए हे अर्जुन तू पहिले इन्द्रियों को वश मैं करके इस ज्ञान विज्ञानं का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल | ..………इन्द्रियों को स्थूल शरीर से श्रेष्ठ ,बलवान और सूक्ष्म कहते हैं ,इन इन्द्रियों से पर मन है ,मन से पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यंत पर है ..वह आत्मा है | ………………...इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म ,बलवान ,और श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश मैं करके तू इस काम रूप दुर्जय शत्रु को मार डाल | .”………………………….दूसरे स्वयंभू सिद्ध भगवन रजनीश यानि ओशो जी ” काम ” का ज्ञान कुछ और ही ज्ञान प्रदान करता है ……अध्यात्म ज्ञान …..”.सम्भोग से समाधी की ओर ” का मार्ग प्रशश्त करता है | समाधिष्ट व्यक्ति का आत्म साक्षात्कार स्वतः ही परमात्मा से हो जाता है | ……सेक्स से अंतःकरण की प्रसन्नता प्राप्त होती है | अन्तः करण की प्रसन्नता से सम्पूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है | और उस प्रसन्न चित्त वाले की बुद्धि शीघ्र ही सब और से हटकर एक परमात्मा मैं ही भली भांति स्थिर हो जाती है | ………………………….………..ओशो के अनुसार ….”धार्मिक व्यक्ति की पुरानी धारणा यह रही है कि वह जीवन विरोधी है। वह इस जीवन की निंदा करता है, इस साधारण जीवन की – वह इसे क्षुद्र, तुच्छ, माया कहता है। वह इसका तिरस्कार करता है। मैं यहाँ हूँ, जीवन के प्रति तुम्हारी संवेदना व प्रेम को जगाने के लिये।” ……………………………………………………..ओशो ने हर एक पाखंड पर चोट की। सन्यास की अवधारणा को उन्होंने भारत की विश्व को अनुपम देन बताते हुए सन्यास के नाम पर भगवा कपड़े पहनने वाले पाखंडियों को खूब लताड़ा। ओशो ने सम्यक सन्यास को पुनरुज्जीवित किया है। सन्यास पहले कभी भी इतना समृद्ध न था जितना आज ओशो के संस्पर्श से हुआ है। इसलिए यह नव-संन्यास है। उनकी नजर में सन्यासी वह है जो अपने घर-संसार, पत्नी और बच्चों के साथ रहकर पारिवारिक, सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए ध्यान और सत्संग का जीवन जिए। उनकी दृष्टि में एक संन्यास है जो इस देश में हजारों वर्षों से प्रचलित है। उसका अभिप्राय कुल इतना है कि आपने घर-परिवार छोड़ दिया, भगवे वस्त्र पहन लिए, चल पड़े जंगल की ओर। वह संन्यास तो त्याग का दूसरा नाम है, वह जीवन से भगोड़ापन है, पलायन है। और एक अर्थ में आसान भी है-अब है कि नहीं, लेकिन कभी अवश्य आसान था। भगवे वस्त्रधारी संन्यासी की पूजा होती थी। उसने भगवे वस्त्र पहन लिए, उसकी पूजा के लिए इतना पर्याप्त था। वह दरअसल उसकी नहीं, उसके वस्त्रों की पूजा थी। वह सन्यास इसलिए भी आसान था कि आप संसार से भाग खड़े हुए तो संसार की सब समस्याओं से मुक्त हो गए। क्योंकि समस्याओं से कौन मुक्त नहीं होना चाहता? लेकिन जो लोग संसार से भागने की अथवा संसार को त्यागने की हिम्मत न जुटा सके, मोह में बंधे रहे, उन्हें त्याग का यह कृत्य बहुत महान लगने लगा, वे ऐसे संन्यासी की पूजा और सेवा करते रहे और सन्यास के नाम पर परनिर्भरता का यह कार्य चलता रहा : सन्यासी अपनी जरूरतों के लिए संसार पर निर्भर रहा और तथाकथित त्यागी भी बना रहा। लेकिन ऐसा सन्यास आनंद न बन सका, मस्ती न बन सका। दीन-हीनता में कहीं कोई प्रफुल्लता होती है? धीरे-धीरे सन्यास पूर्णतः सड़ गया।. संन्यासी, जो भाग गया है संसार से, वह तुम्हारे जैसे दुःख में नहीं रहेगा, यह बात तय है; लेकिन तुम जिस सुख को पा सकते थे, उसकी संभावना भी उसकी खो गई।जिसको हम सांसारिक कहते हैं, गृहस्थ कहते हैं, वह गिरता है सीढ़ी से; जिसको हम संन्यासी कहते हैं पुरानी परंपरा-धारणा से, वह सीढ़ी छोड़ कर भाग गया। मैं उसको संन्यासी कहता हूँ जिसने सीढ़ी को नहीं छोड़ा; अपने को बदलना शुरू किया और जिसने प्रेम से ही, प्रेम की घाटी से ही धीरे-धीरे प्रेम के शिखर की तरफ यात्रा शुरू की।…………………………………………………………इसीलिए उन्होने अपने शिष्यों को “नव संन्यास” में दीक्षित किया और अध्यात्मिक मार्गदर्शक की तरह कार्य प्रारंभ किया। अपनी देशनाओं में उन्होने सम्पूूूर्ण विश्व के रहस्यवादियों, दार्शनिकों और धार्मिक विचारधारों को नवीन अर्थ दिया।……………………………………………………भगवन रजनीश के अनुसार …………………………………….शास्त्र भरे पड़े हैं स्त्रियों की निंदा से। पुरुषों की निंदा नहीं है, क्योंकि किसी स्त्री ने शास्त्र नहीं लिखा। नहीं तो इतनी ही निंदा पुरुषों की होती, क्योंकि स्त्री भी तो उतने ही नरक में जी रही है जितने नरक में तुम जी रहे हो। लेकिन चूंकि लिखने वाले सब पुरुष थे, पक्षपात था, स्त्रियों की निंदा है। किसी तुम्हारे संत-पुरुषों ने नहीं कहा कि पुरुष नरक की खान। स्त्रियों के लिए तो वह भी नरक की खान है, अगर स्त्रियां पुरुष के लिए नरक की खान हैं। नरक दोनों साथ-साथ जाते हैं–हाथ में हाथ। अकेला पुरुष तो जाता नहीं; अकेली स्त्री तो जाती नहीं। लेकिन चूंकि स्त्रियों ने कोई शास्त्र नहीं लिखा–स्त्रियों ने ऐसी भूल ही नहीं की शास्त्र वगैरह लिखने की–चूंकि पुरुषों ने लिखे हैं, इसलिए सभी शास्त्र पोलिटिकल हैं; उनमें राजनीति है; वे पक्षपात से भरे हैं।……………………………………...तुम्हारे साधु-संन्यासी खड़े हैं सदा तैयार कि जब तुम उलझन में पड़ो, वे कह दें, हमने पहले ही कहा था कि बचना कामिनी-कांचन से, कि स्त्री सब दुःख का मूल है। वे कहेंगे, हमने पहले ही कहा था कि स्त्री नरक की खान है।………………….सुख दुःख पर भगवन रजनीश की व्याख्या …….जब हमें वोध हो जाता है की अपनी स्तिथि के लिए हम ही जिम्मेदार हैं दूसरा कोई नहीं ,उस क्षण हमारे अंदर क्रांति आ जाती है हमारा रूपांतरण हो जाता है …दुःख से सुख की ओर …| …..………………जबकि भगवन कृष्ण कहते हैं कि….जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है वही यथार्थ देखता है | सतगुण ,रजोगुण ,तमोगुण आत्मा को शरीर से बांधते हैं | सतगुण सुख मैं ,रजोगुण कर्म मैं और तमोगुण ज्ञान को ढककर प्रमाद मैं लगाता है | श्रेष्ठ कर्म का फल सात्विक (सुख ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल ) कहा गया है | राजस कर्म का फल दुःख और तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है | ………………………………….जिस समय तीनो गुणों के अतिरिक्त किसी अन्य को कर्ता नहीं देखता और मुझ सच्चिदानंदघन स्वरुप परमात्मा को पहिचानता है ,वह शरीर की उत्पत्ति के कारन रूप इन तीनो गुणों का उल्लंघन करके जन्म ,मृत्यु , वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुखों से मुक्त हुआ परमानंद को पाता है | ………………………………………मर्म न जानकर किये हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है , ज्ञान से मुझ परमेश्वर का ध्यान श्रेष्ठ है ,और ध्यान से भी सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है ,क्यों कि त्याग से तत्काल ही परम शांति होती है | ………………………………………………………….यह है दो स्वयं सिद्ध भगवानों के ज्ञान बर्धक बचन किन्तु विज्ञानं के रूप मैं सिद्ध ज्योतिष सब कुछ जन्म समय बनी कुंडली मैं ही सिद्ध कर देती है | जातक मनुष्य किस प्रकृति का होगा | काला होगा गोरा होगा ,कर्मठ होगा ,अकर्मठ होगा , भाग्यवान होगा ,अभागा होगा ,धनवान होगा ,निर्धन होगा ,संत होगा ,वैरागी होगा या राजा होगा | सदगुणी होगा ,या दुर्गुणी होगा | विवाहित रहेगा या अविवाहित | कामुक होगा या नपुंसक | पूर्व जन्मों के कर्मों के फल के अनुसार सब निश्चित हो जाता है | …………………………………………………...मनुष्य को दुखों से सुखों की ओर ले जाने के भगवानो के तो सिर्फ उपदेश ही होते हैं | जिनका कार्यान्वन तो सिद्ध पुरुषों द्वारा ही किया जा सकता है | सांसारिक व्यक्तियों के लिए .. अमल तो करना मुस्किल होता है …| किन्तु सबसे सुगम भक्ति मार्ग तो अपना ही सकते हैं | किन्तु ज्योतिषियों के द्वारा अति सुगम उपाय किये जाते हैं | नए नए उपक्रमों से भी मनुष्य को क्या सुखी कर पाते हैं ज्योतिषी ...? ..और भी सुगम उपाय है निर्मल बाबा की कृपा ……………..इससे सुगम तो सिर्फ ………………………………………………………..ओम शांति शांति शांति जपो और सुखी महसूस करो

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