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लक्ष्मी तुम कहां

PAPI HARISHCHANDRA
PAPI HARISHCHANDRA
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लक्ष्मी थिर न रहीम कह ,अथ जानत सब कोई, पुरुष पुरातन कि बहु ,क्यों न चंचला होई. रहीम दास के साधारण भाषा में साधारण लोगो को दिया यह दोहा एक सत्य है. लक्षमी कभी स्थिर नहीं होती जैसे किसी बूढ़े पुरुष की बहु क्यों नहीं चंचल होगी. भाव एक उपदेशक ही है अपनी लक्ष्मी को पहचानो कहाँ किस रूप में है यह आत्म बोध से पहिचाना जा सकता है सिर्फ धन ही लक्ष्मी हो यह सत्य नहीं. गौ धन गज धन बाज धन और रतन धन खान ,जब आवे संतोष धन सब धन धूरी समान. महाभारत में महर्षी वेद ब्यास ने कहा है धैर्य, मनोनिग्रह,इंद्रियों को बस में करना ,दया ,मधुर बचन ,और मित्रों को बनाये रखना ,ये लक्ष्मी (ऐष्वर्य ) को बढ़ाने वाली होती हैं.

हितोपदेश में कहा है उत्साही, आलश्य हीन,कार्य करने की विधि जानने वाला , अस्त्रों से रहित, शूर, उपकार मानने वाला ,तथा द्रढ मित्रता वाले मनुष्य के पास लक्ष्मी स्वतः ही निवास के लिए पहुँच जाती है शारदातिलक में उल्लेख किया है कि अधिक श्री की इच्छा करने वाले व्यक्ति को सदा सत्यवादी होना चाहिए ,हंसमुख होना चाहिए मधुर भाषण करना चाहिए. जो मनुस्य मित भाषी ,कार्यकुशल ,क्रोध हीन ,भक्त (आधुनिक भाषा में चमचा ) ,कृतज्ञ ,जितेन्द्रिय ,और उदार है ,सदाचारी ,धर्मज्ञ ,बड़े बूदों की सेवा भाव वाला ,पुण्यात्मा ,क्षमाशील और बुद्धिमान है उन ब्यक्तियों के पास लक्ष्मी सदा रहती है. लक्ष्मी कहाँ से चली जाती है.

मार्कण्डेय पुराण में तथा सारंगधर पद्धती में कहा गया है जिसके वस्त्र ,दांत गंदे होते हैं ,ज्यादा खाता है ,तथा निष्ठूर भाषण करता है ,सूर्यास्तकाल में या सूर्योदय के बाद भी सोया रहता है ,,वह चाहे विष्णू भगवन ही क्यों न हो लक्ष्मी उसका परित्याग कर देती है. पराया अन्न ,दूसरों के वस्त्र ,परायी सवारी ,पराई स्त्री ,,और परग्रह निवास ,ये इन्द्र के समान ब्यक्ति की सम्पत्ती यानी लक्ष्मी को हर लेती हैं जो आलसी, क्रोधी, कृपण , व्यसनी, दुराचारी ,कटु बचन बोलने वाले ,अदूरदर्शी ,और अहंकारी, होते हैं ,उनके कितने ही प्रयत्न करने पर भी लक्ष्मी नहीं टिकती. दुर्ब्यसन ,अपवित्रता ,,अशांति में लक्ष्मी नहीं टिकती जब मनुष्य पर्याप्त कार्य करे और कर्मानुसार फल न मिले तो वह अभागा ही कहा जायेगा.

दरिद्रता उसका साथ नहीं छोड़ती धार्मिक रूप से लक्ष्मी महालक्ष्मी का प्राकट्य कार्तिक कृष्ण अमावस्या को मनाया जाता है तुला संक्रांती में पितृगण स्वस्थान में होते हैं दीप दान से पितरों को प्रशन्न कर धन आगमन होता है ऐसी धारणा होती है ,,सूर्य व चन्द्र दोनों का तुला राशी में रहकर लक्ष्मी योग बनता है यानी लक्ष्मी पृथ्वी पर समद्र मंथन से प्रगट होकर हर वर्ष आती है जिनके सत्कार के लिए हम दीपावली के रूप में स्वागत कर अपनी ओर आकर्षित करते है.

लक्ष्मी मनुष्यों की भी होती है देवताओं की भी और राक्षसों की भी अपनी लक्ष्मी को कैसे पहिचानें. जो लक्ष्मी हमारे पास ही होती है हम उसका सम्मान न कर दूसरे की लक्ष्मी की ओर लालायित होते हैँ और अपनी लक्ष्मी को नाराज करते हैँ सर्वप्रथम हमारी लक्ष्मी गृहलक्ष्मी ही होती है ,वोः पति या पत्नी दोनों के रूप में हो सकती है ,,दूसरी आत्माकारक सूर्य रूपी आत्म बल ही होता है जिसके द्वारा हम राजलक्ष्मी धन सम्पदा लक्ष्मी रूपी लक्ष्मी हासिल कर सकते है.

अतः आत्मबल बढ़ाने वाले कार्य ही करें तो हम राज लक्ष्मी को पा सकते हैँ वर्ना अऱाज्य लक्ष्मी या अलक्ष्मी ही हासिल करेंगे ,चन्द्र रुपी मन को शांत कर हम शरीर में आरोग्य लक्ष्मी को पा सकते हैँ और मन को अशांत कर रोग लक्ष्मी ज्ञान को हासिल कर हम ज्ञान लक्ष्मी पाकर गौरवान्वित होकर आनंदित हो सकते हैँ ,गलत ज्ञान को पाकर कु ज्ञान लक्ष्मी को भोगते दुखी हो सकते हैँ ,संतान को सुसंतान बनाकर सुसंतान लक्ष्मी से सुखी हो सकते है.

पत्नी या पति को सुभार्य सुपति बनाकर हम लक्ष्मी का अहसास कर सकते हैँ ,,धन प्राप्त करने के लिए कर्मठ आलस्य विहीन होकर धन रुपी लक्ष्मी पा कर सुखी हो सकते हैँ ,अच्छे मित्र बनाकर सुमित्र लक्ष्मी से सुख भोग सकते हैँ अन्यथा शत्रु लक्ष्मी से प्रताड़ित हो सब कुछ गवां सकते हैँ इन सब सुलक्ष्मीयों को भोगते कीर्ति लक्ष्मी स्वतः ही आकर हमें व आगे आने वाली पीढ़ीयों को भी आनंदित कर सकती हैँ विपरीत होने पर अपकीर्ति लक्ष्मी क्या कुछ नहीं कर सकती है.

इतिहास गवाह है की किस बड़े से बड़े मनुष्य देवता या राक्षस तक ने अपनी लक्ष्मी अपनी ही लक्षीमियों का अपमान कर गवाई. क्यों हम लक्ष्मी के लिए दूसरी ओर ही देखते हैं अपनी लक्ष्मी को अपनी ही दुनियां में पोषित क्यों नहीं करते हैं जब हमारे पास भगवान की दी हुई सम्पदा विभिन्न रूपों में मौजूद है ,क्यों अपनी लक्ष्मी को नाराज कर दूसरे की लक्ष्मी को हथियाना चाहते हैं,आत्म चिंतन करें तो पाएंगे क्यों हमने अपनी लक्ष्मी गवाई अपनी लक्ष्मी को अपने दुर्व्यवहार से,लापरवाही से गवा कर,दूसरे की लक्ष्मी को पाने की तिगणम् करते सारी लक्ष्मीयों को गवाते जाते हैं.

जिस लक्ष्मी को हम ढूढ़ते फिरते गाते रहते हैं लक्ष्मी तुम कहाँ तुम कहाँ, लक्ष्मी भी जवाब देती रहती है में यहाँ में यहाँ. बस अपना मन, मस्तिष्क, ऑंखें, कान खुले रखो लक्ष्मी हमको पुकारती महसूस होंगी. में यहाँ  में यहाँ ढूंढते फिर रहे हो कहाँ. पहचानो अपनी लक्ष्मी को और गर्व से कहो यह मेरी लक्ष्मी है तभी महसूस होगी सबसे बड़ी लक्ष्मी, संतोष लक्ष्मी ,फिर दीपावली सिर्फ परंपरा को निभाने के लिए ही मनाएंगे स्वधर्म का पालन करते सबसे बड़े लक्ष्मीपति बन जायेंगे. और विश्व में भी गर्व से कहेंगे. दीपावली में अली बसे ,राम बसे रमजान ,,ऐसा होना चाहिए ,दोस्तों अपना हिंदुस्तान.

ॐ शांति शांति शांति

 

डिस्क्लेमर: उपरोक्त विचारों के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी हैं। जागरण डॉट कॉम किसी भी दावे, आंकड़े या तथ्य की पुष्टि नहीं करता है।

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